देवशयनी एकादशी व्रत कथा

देवशयनी एकादशी व्रत कथा – आषाढ़ मास शुक्ल पक्ष एकादशी

आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवशयनी एकादशी कहा जाता है। इसे पद्मनाभा एकदाशी भी कहा जाता है। पुराणों में ऐसा उल्लेख मिलता है कि इस दिन से भगवान विष्णु चार मास के लिए क्षीरसागर में शयन करते हैं। इसी कारण इस एकादशी को हरिशयनी एकादशी कहते हैं। इसी दिन से चातुर्मास या चौमासे का आरम्भ माना जाता है। इन चार महीनों में भगवान विष्णु के क्षीरसागर में शयन करने के कारण विवाह आदि कोई शुभ कार्य नहीं किया जाता। इन दिनों में तपस्वी भ्रमण नहीं करते, वे एक ही स्थान पर रहकर तपस्या करते हैं। इन दिनों केवल ब्रज-मण्डल की यात्रा की जा सकती है, क्योंकि इन चार महीनों में भू-मण्डल के समस्त तीर्थ ब्रज-मण्डल में आकर निवास करते हैं।

श्री सूत जी ऋषियों को कहने लगे विधि सहित इस एकादशी व्रत का माहात्म्य तथा जन्म की कथा भगवान कृष्ण ने युधिष्ठिर को सुनाई थी। युधिष्ठिर बोले- हे भगवान कृष्ण ! अब आप मुझे 26 एकादशियों के नाम , व्रत विधि बतलाइये , तथा इस दिन किस देवता का पूजन करना चाहिए, यह भी बताइए। भगवान कृष्ण बोले – हे युधिष्ठिर ! मैं दान, स्नान, तीर्थ , तप इत्यादि शुभ कर्मों से शीघ्र प्रसन्न नहीं होता हूँ परंतु एकादशी व्रत करने वाला मुझे प्राणों के समान प्रिय लगता है । भगवान श्री हरि बोले – हे धर्मात्माओ में श्रेष्ठ युधिष्ठिर ! आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का नाम देवशयनी है । अब एकादशी के माहात्म्य की एक पौराणिक कथा कहता हूँ सुनो!

कथा:-

सतयुग में अयोध्यापुरी नगरी में मानधाता नामक एक चक्रवर्ती सम्राट राज्य करते थे। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुख के साथ और आनन्द पूर्वक रहती थी। एक बार उनके राज्य में लगातार तीन वर्ष तक वर्षा न होने के कारण भयंकर अकाल पड़ा। प्रजा व्याकुल हो गई। इस अकाल से पूरे राज्य में हाहाकार मच गया। लोगों पर आयी इस परेशानी के कारण धर्मपक्ष के यज्ञ, हवन, पिण्डदान, कथा, व्रत आदि सब में भारी कमी हो गई। प्रजा ने राजा के दरबार में जाकर अपनी वेदना की दुहाई दी। राजा इस स्थिति को लेकर पहले से ही दुखी थे। वे सोचने लगे कि आख़िर मैंने ऐसा कौन-सा पाप-कर्म किया है, जिसका दण्ड मुझे इस रूप में मिल रहा है? इसी चिन्ता में वन को चल पड़ा ।

जंगल में विचरण करते-करते एक दिन वे ब्रह्मा जी के तेजस्वी पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुंचे और उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। मुनि ने उन्हें आशीर्वाद देकर कुशल क्षेम पूछा। फिर जंगल में विचरण व अपने आश्रम में आने का अभिप्राय पूछा। तब राजा ने हाथ जोड़कर कहा- हे सप्त ऋषियों में श्रेष्ठ मुनि मैं आपकी शरण में आया हूँ। राजा के पापों से प्रजा को दुःख मिलता है और मैंने अपने जीवन में किसी प्रकार का कोई पाप नहीं किया । सब प्रकार से धर्म का पालन करते हुए भी मैं अपने राज्य में अकाल का दृश्य देख रहा हूं। मैं इसका कारण नहीं जानता। आप दिव्य दृष्टि से देखकर बताइए कि मेरे राज्य में अकाल पड़ने का क्या कारण है? कृपया आप इस समस्या का कोई समाधान बताइए।

यह सुनकर अंगिरा ऋषि ने कहा- हे राजन! यह सतयुग सब युगों में श्रेष्ठ और उत्तम माना गया है। इसमें छोटे से पाप का भी बड़ा भारी फल मिलता है। इसमें धर्म अपने चारों चरणों में व्याप्त रहता है। सतयुग में ब्राह्मणों का वेद पढ़ना और तपस्या करना धर्म है जबकि आपके राज्य में एक शूद्र तपस्या कर रहा है। यही कारण है कि आपके राज्य में वर्षा नहीं हो रही है। जब तक उसकी जीवन लीला समाप्त नहीं होगी, तब तक यह अकाल शांत नहीं होगा। उस शूद्र तपस्वी को मारने से ही पाप की शांति होगी। राजा बोले मैं उस निरपराध तपस्या करने वाले शूद्र को नहीं मारूँगा, आप इस कष्ट से छूटने का कोई और उपाय बतलाइये चाहे वो कितना भी कठिन क्यों न हो मैं अपनी प्रजा की भलाई के लिए उसे अवश्य करूंगा मगर किसी निरपराध की हत्या नहीं करूंगा।

ऋषिराज प्रसन्न होकर बोले – एक सुगम उपाय कहता हूँ सुनो! – भोग तथा मोक्ष देने वाली आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की देवशयनी एकादशी का विधिपूर्वक व्रत करो। व्रत के प्रभाव से चतुर्मास तक वर्षा होती रहेगी । इस एकादशी का व्रत सिद्धियों को देने वाला तथा उपद्रवों को शांत करने वाला है। यह सुनकर राजा मानधाता वापस लौट आया और उसने चारों वर्णों सहित देवशयनी एकादशी का विधिपूर्वक व्रत किया। व्रत के प्रभाव से राजा को आकाशवाणी हुई कि हे राजन! आपके राज्य में दुर्भिक्ष तो आपके पूर्वजन्म के पापों के फलस्वरूप पड़ा है जिसमें वह शूद्र आपका सहभागी था, इसलिए उसे शूद्र के घर जन्म मिला। इस जन्म में प्रभु की तपस्या में लीन रहने के कारण उसके सारे पाप नष्ट हो गए, और आपके इस जन्म के सद्कर्म तथा एक निरपराध तपस्या कर रहे शूद्र की हत्या न करने के विचार ने आपके पूर्वजन्म के पापों को नष्ट कर दिया है और आपसे भगवान श्री हरि विष्णु अति प्रसन्न हैं।

आकाशवाणी के पश्चात ही वहां मूसलाधार वर्षा शुरू हो गई तथा कुछ ही दिनों में चारों दिशाओं में हरियाली छा गई और पूरा राज्य धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया। इस एकादशी का माहात्म्य पढ़ने या सुनने से अकाल मृत्यु का भय दूर हो जाता है । आज के दिन तुलसी का पौधा रोपण करने से महान पुण्य प्राप्त होता है । तुलसी की पवन से यमदूत भय पाते हैं । जिनका कंठ तुलसी माला से सुशोभित होता है उनका जीवन धन्य हो जाता है।

व्रत विधि:-

व्रत रहने वाले को दशमी के दिन रात में सात्विक भोजन करना चाहिए और ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।एकादशी के दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर श्री हरि विष्णु की मूर्ति स्थापित करें और विधि सहित धूप, दीप, चंदन, फूल, फल एवं तुलसी से प्रभु का पूजन करें। वैसे तो सभी एकादशियों को भगवान विष्णु की पूजा-आराधना की जाती है, परंतु आज की रात्रि से भगवान का शयन प्रारम्भ होने के कारण उनकी विशेष विधि-विधान से पूजा की जाती है। इस दिन उपवास करके भगवान विष्णु की प्रतिमा को आसन पर आसीन कर उनका षोडशोपचार सहित पूजन करके, उनके हाथों में शंख, चक्र, गदा, पद्म सुशोभित कर उन्हें पीले वस्त्रों से सजाया जाता है। पंचामृत से स्नान करवाकर, तत्पश्चात् भगवान की धूप, दीप, पुष्प आदि से पूजा कर आरती उतारी जाती है। भगवान को पान, सुपारी अर्पित करने के बाद उनकी स्तुति की जाती है कि हे जगन्नाथजी! आपके निद्रित हो जाने पर संपूर्ण विश्व निद्रित हो जाता है और आपके जाग जाने पर संपूर्ण विश्व तथा चराचर भी जाग्रत हो जाते हैं। इसलिए सदैव हम पर अपनी कृपा बनाए रखना। इस व्रत में तुलसी का भोग लगाया जाता है। निंदक, चोर, दुराचारी, नास्तिक इन सबसे बात नहीं करनी चाहिए। यदि भूल से ऐसी गलती हो जाए तो सूर्य देव की और मुख करके क्षमा प्रार्थना करनी चाहिए।

फलहार:-

इस दिन दाख का सागार लेना चाहिए ।

कीर्तन:-

रात्रि में भगवान विष्णु का नाम जप और कीर्तन करें। इस दिन भगवान की मूर्ति के समीप ही शयन करना चाहिए और स्वयं सोने से पूर्व भगवान को भी शयन करा देना चाहिए।

व्रत का समापन:-

द्वादशी के दिन प्रातः भगवान श्री हरि विष्णु की पूजा करके क्षमता अनुसार दान आदि करना चाहिए।

ब्रह्मा जी द्वारा नारद ऋषि को बताया गया इस व्रत का महात्म्य इस प्रकार है:-

एक बार देवर्षि नारद जी ने ब्रह्मा जी से इस एकादशी के माहात्म्य के बारे में पूछा। तब ब्रह्मा जी ने नारद ऋषि को बताया कि -इस व्रत को करने से प्राणी की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं तथा उनके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। आज के दिन भगवान विष्णु को शयन कराया जाता है फिर वे कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष एकादशी अर्थात देव प्रबोधिनी एकादशी को जागते हैं। चतुर्मास का व्रत इसी एकादशी से प्रारम्भ होता है । जो मनुष्य ब्रह्मचर्य का पालन कर चतुर्मास का व्रत करते हैं वह विष्णु भगवान को प्रिय हैं । शिवलोक में उसकी पूजा होती है , सर्व देवता उसे नमस्कार करते हैं । चातुर्मास में जो एक बार भोजन करते हैं , वे स्वर्ग को जाते हैं । चन्द्रयाणादि कठिन व्रत भी चतुर्मास के समाप्ति के समय ही करना चाहिए। इसमें ब्राह्मणों को भोजन दक्षिणा से प्रसन्न करें , गौओं का दान कर सकें तो उत्तम है , नहीं तो गर्म वस्त्र का दान अवश्य करें। तिल के साथ मिलाकर जो स्वर्णदान करते हैं वे भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त करते हैं ।

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एकादशी व्रत: आत्मा की शुद्धि का मार्ग

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