अजा एकादशी व्रत कथा – भाद्रपद या भादों मास कृष्ण पक्ष एकादशी
भाद्रपद या भादों मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को अजा एकादशी कहा जाता है। यह व्रत समस्त पापों और कष्टों को नष्ट करने वाला और सुख समृद्धि देने वाला है। इस व्रत को करने से पूर्वजन्म के पापों से मुक्ति मिल जाती है। इस दिन भगवान विष्णु के उपेन्द्र स्वरूप की पूजा की जाती है। अजा एकादशी व्रत करने से व्यक्ति को हज़ार गौ का दान करने के समान फल प्राप्त होता है तथा व्यक्ति द्वारा जाने-अनजाने में किए गये सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।
श्री सूत जी ऋषियों को कहने लगे विधि सहित इस एकादशी व्रत का माहात्म्य तथा जन्म की कथा भगवान कृष्ण ने युधिष्ठिर को सुनाई थी। युधिष्ठिर बोले- हे भगवान कृष्ण ! अब आप मुझे 26 एकादशियों के नाम, व्रत विधि बतलाइये, तथा किस देवता का पूजन करना चाहिए, यह भी बताइए। भगवान कृष्ण बोले – हे युधिष्ठिर ! मैं दान, स्नान, तीर्थ , तप इत्यादि शुभ कर्मों से शीघ्र प्रसन्न नहीं होता हूँ परंतु एकादशी व्रत करने वाला मुझे प्राणों के समान प्रिय लगता है।
भगवान कृष्ण बोले – हे धर्म पुत्र ! भादों मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम अजा है। इसका माहात्म्य गौतम मुनि ही जानते हैं, जिन्होंने युगों का परिवर्तन कर दिया था।
कथा:-
प्राचीन काल में अयोध्या नगरी में हरिश्चंद्र नाम के सूर्यवंशी राजा रहते थे। वे अपनी सत्यनिष्ठा और दानकर्म के लिए प्रसिद्ध थे, इसके लिए इन्हें अपने जीवन में अनेक कष्ट सहने पड़े। एक बार राजा हरिश्चन्द्र ने स्वप्न देखा कि उन्होंने अपना सारा राज्य दान में दे दिया है। राजा ने स्वप्न में जिस व्यक्ति को अपना राज्य दान में दिया था, उसकी आकृति महर्षि विश्वामित्र से मिलती-जुलती थी। अगले दिन महर्षि उनके दरबार में पहुँचे। उनके द्वार पर एक श्याम पट , लगा था, जिसमें मणियों से लिखा हुआ था – इस द्वार पर मुँह माँगा दान दिया जाता है। विश्वामित्र ने पढ़कर कहा , मणियों का लेख मिथ्या है हरिश्चन्द्र ने उत्तर दिया , परीक्षा कर लीजिए। विश्वामित्र बोले – अपना राज्य मुझे दे दो।
हरिश्चन्द्र बोले – राज्य आपका है ये तो रात को स्वप्न में मैं आपको दे चुका हूं। तब सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र ने अपना सारा राज्य उन्हें सौंप दिया। जब राजा दरबार से चलने लगे, तभी विश्वामित्र ने दक्षिणा के रूप में राजा से सौ स्वर्ण मुद्राएँ मांगी। राजा ने कहा- हे ऋषिवर! आप सौ क्या, जितनी चाहें मुद्राएँ ले सकते हैं। विश्वामित्र ने कहा- तुम भूल रहे हो राजन, राज्य के साथ राजकोष तो आप पहले ही दान कर चुके हैं। क्या आप दान की हुई वस्तु दक्षिणा में दे सकते हो?
राजा हरिश्चन्द्र को अपनी भूल का एहसास हुआ। फिर उन्होंने अपनी पत्नी तथा पुत्र को बेचकर स्वर्ण मुद्राएँ जुटाईं, परन्तु वे भी पूरी न हो सकीं। तब मुद्राएँ पूरी करने के लिए उन्होंने स्वयं को बेच दिया। राजा हरिश्चन्द्र ने जिसके पास स्वयं को बेचा था, वह जाति से डोम था। वह शमशान का स्वामी होने के नाते मृतकों के संबंधियों से कर/शुल्क लेकर उन्हें शवदाह की स्वीकृति देता था। उस डोम ने राजा हरिश्चन्द्र को इस कार्य के लिए तैनात कर दिया। राजा हरिश्चन्द्र इसे अपना कर्तव्य समझकर विधिवत पालन करने लगे। इस प्रकार राजा ने धर्म का सत्कार किया, आप डोम के सेवक बने, रानी दासी हो गई। ऐसी आपत्ति में भी उन्होंने सत्य का त्याग न किया। एक दिन राजा चिंता के समुद्र में डूबकर अपने मन में विचार करने लगा कि मैं कहाँ जाऊँ, क्या करूँ, जिससे मेरा उद्धार हो। उनकी यह दशा देखकर गौतम मुनि के दिल में दया आई और उन्होंने राजा हरिश्चन्द्र के पास आकर कहा राजन आज से ठीक सात दिन बाद भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अजा एकादशी आएगी, तुम विधिपूर्वक उसका व्रत करो। इस व्रत के पुण्य प्रभाव से तुम्हारे समस्त पाप नष्ट हो जाएँगे। इस प्रकार राजा से कहकर गौतम ऋषि उसी समय अंतर्ध्यान हो गए। राजा ने उनके कथनानुसार एकादशी आने पर विधिपूर्वक व्रत किया।
जिस दिन राजा हरिश्चन्द्र का अजा एकादशी का व्रत था। वे अर्द्धरात्रि में शमशान में पहरा दे रहे थे और प्रभु का नामजप करके जागरण कर रहे थे। तभी वहाँ एक स्त्री अपने पुत्र का दाह संस्कार करने के लिए आई। वह इतनी निर्धन थी कि उसके पास शव को ढकने के लिए कफ़न तक न था। शव को ढकने के लिए उसने अपनी आधी साड़ी फाड़कर कफ़न बनाया था। राजा हरिश्चन्द्र ने उससे कर माँगा। परन्तु उसके पास कफ़न तक के लिए तो पैसा नहीं था, फिर कर अदा करने के लिए धन कहाँ से आता? कर्तव्यनिष्ठ महाराज ने उसे शवदाह की आज्ञा नहीं दी। बेचारी स्त्री बिलख कर रोने लगी। एक तो पुत्र की मृत्यु का शोक, ऊपर से अंतिम संस्कार न होने पर शव की दुर्गति होने का डर । उसी समय आकाश में घने काले-काले बादल मंडराने लगे, पानी बरसने लगा, बिजली चमकने लगी।
बिजली के प्रकाश में राजा ने जब उस स्त्री को देखा, तो वह चौंक उठे। वह उनकी पत्नी तारामती थी और मृतक बालक उनका इकलौता पुत्र रोहिताश्व था, जिसको नाग बनकर विश्वामित्र ने डस लिया और उसकी मृत्यु हो गई थी। पत्नी तथा पुत्र की इस दीन दशा को देखकर महाराज विचलित हो उठे। अपने परिवार की यह दुर्दशा देखकर उनकी आँखों में आँसू आ गए। वह भरे हुए नेत्रों से आकाश की ओर देखने लगे और कहा- हे ईश्वर! अभी और क्या-क्या दिखाओगे? उन्होंने भारी मन से अनजान बनकर उस स्त्री से कहा- देवी! जिस सत्य की रक्षा के लिए हम लोगों ने राजभवन का त्याग किया, स्वयं को बेचा, उस सत्य की रक्षा के लिए अगर मैं इस कष्ट की घड़ी में न रह पाया तो कर्तव्यच्युत होऊँगा। यद्यपि इस समय तुम्हारी दशा अत्यन्त दयनीय है तथापि तुम मेरी सहायता करके मेरी तपस्या की रक्षा करो। कर लिए बिना मैं तुम्हें तुम्हारे पुत्र के अंतिम संस्कार की अनुमति नहीं दे सकता। रानी ने सुनकर अपना धैर्य नहीं खोया और जैसे ही शरीर पर लिपटी हुई आधी साड़ी में से आधी फाड़कर कर के रूप में देने के लिए हरिश्चन्द्र की ओर बढ़ाई तो तत्काल आकाशवाणी सुनाई दी – हे हरिश्चन्द्र! तुमने सत्य को जीवन में धारण करने का उच्चतम आदर्श स्थापित किया है। तुम्हारे एकादशी व्रत, कर्तव्यनिष्ठा और सत्यनिष्ठा से मैं बहुत प्रसन्न हूं। तभी राजा ने अपने सामने ब्रह्मा , विष्णु , महेश , इन्द्रादिक देवताओं को खड़े देखा , पुत्र को जीवित तथा अपनी स्त्री को आभूषण सहित देखा। राजा हरिश्चन्द्र ने प्रभु को प्रणाम किया और आशीर्वाद मांगा। अगले ही क्षण हरिश्चंद्र का जीवन पहले जैसा हो गया। उसके राज में बालक, वृद्ध सब एकादशी का व्रत करने लगे। एकादशी व्रत के प्रभाव से प्रजा सहित अन्त में स्वर्ग को प्राप्त हुए ।
व्रत विधि:-
व्रत रहने वाले को दशमी के दिन रात में सात्विक भोजन करना चाहिए और ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। एकादशी के दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर नित्य कर्म करके भगवान को पुष्प, जल, धूप, दीप, अक्षत से पूजन करना चाहिए। इस दिन भगवान विष्णु के उपेन्द्र स्वरूप की पूजा की जाती है। इस व्रत में भगवान विष्णु को तुलसी का भोग लगाया जाता है। निंदक, चोर, दुराचारी, नास्तिक इन सबसे बात नहीं करनी चाहिए। यदि भूल से ऐसी गलती हो जाए तो सूर्य देव की और मुख करके प्रार्थना करनी चाहिए।
फलहार – इस दिन बादाम तथा छुआरे का सागार लेना चाहिए ।
कीर्तन:-
रात्रि में भगवान विष्णु का नाम जप और कीर्तन करें। इस दिन भगवान की मूर्ति के समीप ही शयन करना चाहिए।
व्रत का समापन:-
द्वादशी के दिन प्रातः भगवान श्री हरि विष्णु की पूजा करके क्षमता अनुसार दान आदि करना चाहिए।
अत: जो मनुष्य पूर्ण श्रद्धा के साथ विधिपूर्वक इस व्रत को करते हुए रात्रि जागरण करते हैं, उनके समस्त पाप नष्ट होकर अंत में वे बैकुंठ को प्राप्त होते हैं। इस एकादशी की कथा को सुनने मात्र से अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है।
*****