आमला/रंगभरनी/आमलकी एकादशी व्रत कथा – फाल्गुन या फागुन मास शुक्ल पक्ष एकादशी
फाल्गुन या फागुन मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का नाम आमला/रंगभरनी/आमलकी एकादशी है। यह हिंदू धर्म में मान्य सभी महत्त्वपूर्ण व्रतों में से एक है। आमलकी यानी आंवला को शास्त्रों में उसी प्रकार श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है जैसा नदियों में गंगा नदी और देवों में भगवान श्री हरि विष्णु को प्राप्त है। श्री हरि विष्णु जी ने जब सृष्टि की रचना हेतु ब्रह्मा जी को उत्पन्न किया उसी समय उन्होंने आंवले के वृक्ष को भी उत्पन्न किया। आंवले के वृक्ष को श्री विष्णु ने आदि वृक्ष के रूप में प्रतिष्ठित किया है। पद्म पुराण के अनुसार आँवला का वृक्ष भगवान विष्णु को बेहद प्रिय है। आंवला के वृक्ष हर अंग में ईश्वर की व्याप्ति मानी जाती है। भगवान विष्णु ने कहा है जो प्राणी बैकुंठ और मोक्ष प्राप्ति की कामना रखते हैं उनके लिए फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष में जो एकादशी आती है उसका व्रत अत्यंत श्रेष्ठ है।
श्री सूत जी ऋषियों को कहने लगे विधि सहित इस एकादशी व्रत का माहात्म्य तथा जन्म की कथा भगवान कृष्ण ने युधिष्ठिर को सुनाई थी। युधिष्ठिर बोले- हे भगवान कृष्ण ! अब आप मुझे 26 एकादशियों के नाम, व्रत विधि बतलाइये, तथा किस देवता का पूजन करना चाहिए, यह भी बताइए। भगवान कृष्ण बोले – हे युधिष्ठिर ! मैं दान, स्नान, तीर्थ , तप इत्यादि शुभ कर्मों से शीघ्र प्रसन्न नहीं होता हूँ परंतु एकादशी व्रत करने वाला मुझे प्राणों के समान प्रिय लगता है।
श्रीकृष्ण जी बोले – हे युधिष्ठिर ! फाल्गुन मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम आमला है। एक समय मानधाता राजा ने वशिष्ठ मुनि से पूछा, समस्त पापों को नाश करने वाला और मेरा वास्तविक कल्याण करने वाला व्रत कौन सा है ? वशिष्ठ जी बोले- राजन्! मैं आपको एक बड़े ही कल्याणकारी व्रत की कथा सुनाता हूं, जो कि समस्त प्रकार के मंगल को देने वाला है। हे राजन्! इस व्रत का नाम आमलकी एकादशी व्रत है। यह व्रत बड़े से बड़े पापों को नष्ट करने वाला, एक हजार गौ दान के पुण्य का फल देने वाला एवं मोक्ष प्रदाता व्रत है। इसका पौराणिक इतिहास कहता हूं- सुनो!
कथा:-
प्राचीन समय में वैदिश या वैश्य नाम की नगरी में चैत्ररथ नाम का चंद्रवंशी राजा राज्य करता था। वह बड़ा ही धर्मात्मा था। उसकी सारी प्रजा भी वैष्णव थी। उस नगर में कोई भी मनुष्य, पापात्मा अथवा नास्तिक नहीं था। नगर में जहां तहां वैदिक कर्म का अनुष्ठान हुआ करता था। बालक से लेकर वृद्ध तक एकादशी व्रत किया करते थे। इस राज्य में कोई भी दरिद्र अथवा कृपण नहीं देखा जाता था। इस प्रकार प्रजा के साथ राजा, अनेकों वर्षों तक सुखपूर्वक राज करते रहे।
एक बार फाल्गुन माह के शुक्लपक्ष की एकादशी आई और नगर के बालक, वृद्ध, युवा, स्त्री व पुरुष तथा स्वयं राजा ने भी सपरिवार इस एकादशी का व्रत पूरे नियमों के साथ किया। राजा ने अपनी प्रजा के व्यक्तियों के साथ भगवान श्री हरि विष्णु एवं भगवान श्रीपरशुराम जी की पवित्र चरित्र गाथा श्रवण की और रात्रि जागरण में कीर्तन व स्मरण करने हेतु हुए स्वयं भी वहीं रुक गया। नगर निवासियों ने रात्रि को जागरण किया और मन्दिर में कथा कीर्तन करने लगे।
एक बहेलिया जो कि जीव हिंसा से उदर पालन करता था, वहां आ पहुंचा। आज वह शिकारी घर से रूठ चुका था और उसने दिन भर कुछ भी खाया – पिया न था। रात्रि को दिल बहलाने के लिए मन्दिर के कोने में जाकर छुप बैठा । शिकारी के पिछले जन्म के पुण्य का उदय होने पर वह भी वहां एकादशी व्रत करते हुए, कलश के ऊपर विराजमान भगवान श्रीदामोदर जी का दर्शन करके, श्रीहरि की चरित्र गाथा श्रवण करने लगा। उसने रात भर वहाँ विष्णु भगवान की कथा तथा एकादशी व्रत का माहात्म्य सुना। रात्रि व्यतीत होने पर वह प्रातःकाल अपने घर गया और भोजन किया।
कुछ समय बाद जब उस शिकारी की मृत्यु हो गई तो अनजाने में ही एकादशी व्रत पालन करने तथा एकादशी तिथि में रात्रि जागरण और प्रभु स्मरण करने के प्रभाव से उस शिकारी ने जयंती नाम की नगरी के विदूरथ नामक राजा के यहां पुत्र के रूप में जन्म लिया। इस जन्म में इसका नाम वसुरथ था। राजा वसुरथ विशाल धन संपदा, सेना, सामंत, हाथी, घोड़े, रथों से पूर्ण था। वह सूर्य के समान पराक्रमी, पृथ्वी के समान क्षमाशील, धर्मनिष्ठ, सत्यनिष्ठ एवं अनेकों सद्गुणों से युक्त होकर भगवान विष्णु की भक्ति करता हुआ जीवन बिताने लगा। वह बड़ा दानी भी था।
एक बार वह वन विहार करने गया तथा दिशा का ज्ञान न रहा और मार्ग भटक गया। वन में घूमते-घूमते थका हारा, प्यास से व्याकुल होकर एक वृक्ष के नीचे सो गया । आज राजा ने आमला एकादशी का व्रत रखा था और वह सोते समय भगवान का ध्यान लगाकर सोता, था सो आज भी उसने वैसा ही किया। उसी समय पर्वतों मे रहने वाले मलेच्छ यवन सोए हुए राजा के पास आए और राजा को अकेला देखा। उन मलेछों के सम्बन्धियों को किसी दोष के कारण राजा ने दंड दिया था। इस कारण वे राजा की सोते हुए हत्या करना चाहते थे और उस पर हमला कर दिया।
उसी समय आमला एकादशी के प्रभाव से राजा के शरीर से एक सुंदर कन्या उत्पन्न हुई, वह भीषण भृकुटीयुक्ता, क्रोधितनेत्रा देवी क्रोध से लाल-पीली हो रही थी और उसने मलेच्छो द्वारा किए हमले को निष्फल कर दिया। उन लोगों द्वारा फेंके गए अस्त्र शस्त्र राजा को न लगकर उसके इर्द-गिर्द ही गिरते गए, राजा को खरोंच तक नहीं आई। यह देखकर मलेछ आश्चर्य में पड़ गए तथा और तीव्रता से हमला करने लगे। तब उस कन्या ने कालिका के समान एक – एक करके अपना खप्पर फिराया और मलेछों के रुधिर की भिक्षा लेकर अन्तर्ध्यान हो गई ।
राजा ने जगकर शत्रुओं को मरा हुआ देखा और आश्चर्य हुआ मन में कहने लगा, मेरी रक्षा किसने की है ? जो भी हो, मैं उसके इस महान् कार्य के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद ज्ञापन करता हूं। तब आकाशवाणी हुई कि – आमला एकादशी के प्रभाव से शरणागत रक्षक, शरणागत पालक श्री हरि विष्णु ने ही तुम्हारी रक्षा की है। राजा उस आकाशवाणी को सुनकर प्रसन्न हुआ और भगवान श्रीहरि के चरणों में अति कृतज्ञ होकर प्रणाम किया। वह भगवान का भजन करते हुए अपने राज्य में वापस आ गया।
अतः मान्यता है कि जो भी मनुष्य इस आमलकी एकादशी व्रत का पालन करते हैं, वह निश्चित ही बैकुंठ को प्राप्त कर लेते हैं।
व्रत विधि:-
व्रत रहने वाले को दशमी के दिन रात में सात्विक भोजन करना चाहिए और ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।एकादशी के दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर श्री विष्णु की मूर्ति स्थापित करें और विधि सहित धूप, दीप, चंदन, फूल, फल एवं तुलसी से प्रभु का पूजन करें।
भगवान की पूजा के पश्चात पूजन सामग्री लेकर आंवले के वृक्ष के आस पास साफ सफाई करके, उस जगह को गाय के गोबर से लीपकर आंवले के वृक्ष की पूजा करें। पेड़ की जड़ में एक वेदी बनाकर उस पर कलश स्थापित करें। इस कलश में देवताओं, तीर्थों एवं सागर को आमत्रित करें। इसके ऊपर पंच पल्लव रखें तथा एक दीप जलाकर रखें। अंत में कलश के ऊपर श्री विष्णु के छठे अवतार परशुराम की मूर्ति स्थापित करें और विधिवत रूप से परशुराम जी की पूजा करें।
इस व्रत में तुलसी का भोग लगाया जाता है। निंदक, चोर, दुराचारी, नास्तिक इन सबसे बात नहीं करनी चाहिए। यदि भूल से ऐसी गलती हो जाए तो सूर्य देव की और मुख करके प्रार्थना करनी चाहिए।
फलाहार:-
इस दिन आंवले के पेड़ के नीचे परशुराम भगवान को आंवलों का भोग लगाया जाता है । इस दिन आंवलों का सागार लेना चाहिए
कीर्तन:-
रात्रि में भगवान विष्णु का नाम जप और कीर्तन करें। इस दिन भगवान की मूर्ति के समीप ही शयन करना चाहिए।
व्रत का समापन:-
द्वादशी के दिन प्रातः भगवान श्री हरि विष्णु की पूजा करके क्षमता अनुसार दान आदि करना चाहिए।
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