पुत्रदा एकादशी व्रत कथा – पौष या पूस मास शुक्ल पक्ष एकादशी
पुत्रदा एकादशी का हिन्दू धर्म में बड़ा ही महत्त्व है। पौष मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को ‘पुत्रदा एकादशी’ कहा जाता है। इस एकादशी का महत्व पुराणों में भी वर्णित है। पुत्र की ईच्छा रखने वाले व्यक्ति को इस व्रत को करने से पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है।
श्री सूत जी ऋषियों को कहने लगे विधि सहित इस एकादशी व्रत का माहात्म्य तथा जन्म की कथा भगवान कृष्ण ने युधिष्ठिर को सुनाई थी। युधिष्ठिर बोले- हे भगवान कृष्ण ! अब आप मुझे 26 एकादशियों के नाम , व्रत विधि बतलाइये , तथा किस देवता का पूजन करना चाहिए, यह भी बताइए।
भगवान कृष्ण बोले – हे युधिष्ठिर ! मैं दान, स्नान, तीर्थ , तप इत्यादि शुभ कर्मों से शीघ्र प्रसन्न नहीं होता हूँ परंतु एकादशी व्रत करने वाला मुझे प्राणों के समान प्रिय लगता है । माहात्म्य की कथा भी कहता हूँ , प्रेम से सुनो!
भगवान कृष्ण बोले- हे धर्म पुत्र ! पौष मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का नाम पुत्रदा एकादशी है जो पुत्र की कामना पूरी करने वाली है ।
कथा:-
एक समय भद्रावती नगरी में एक संकेतामन राजा राज्य करता था, उसकी स्त्री का नाम शैव्या था। वह निपुती होने के कारण सदैव चिंतित रहा करती थी। राजा के पितर भी रो-रोकर पिंड लिया करते थे और सोचा करते थे कि इसके बाद हमको कौन पिंड देगा। राजा को भाई, बांधव, धन, हाथी, घोड़े, राज्य और मंत्री इन सबमें से किसी से भी संतोष नहीं होता था। उसका भवन विश्व विभूतियों से भरा हुआ था।
उसके द्वार पर चिन्तामणियों का प्रकाश था, परंतु राजा की आँखों में अंधेरा सा प्रतीत होता था, कारण कि उसके पुत्र नहीं था और वह स्वर्ग के सुखों को नरक के समान समझता था। राजा ने हजारों पुत्रेष्ठी यज्ञ किए परंतु सफल एक न हुआ। देवताओं को लाखों बार प्रणाम किया लेकिन आशीर्वाद एक भी न मिला।
वह सदैव यही विचार करता था कि मेरे मरने के बाद मुझको कौन पिंडदान करेगा। बिना पुत्र के पितरों और देवताओं का ऋण मैं कैसे चुका सकूंगा। बेचारा हार गया और बुरे – बुरे विचार करने लगा कि क्या करूँ ! विष खा लूँ और भूत बन जाऊँ तो अच्छा है, परंतु यह कदम उचित नहीं,आत्मघात करना महापाप है, सोचकर रुक गया। जिस घर में पुत्र न हो, उस घर में सदैव अंधेरा ही रहता है इसलिए पुत्र उत्पत्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए।
इस चिंता से छूटने का उपाय वनवासियों से पूछने के लिए घोड़े पर सवार होकर वन विहार करने लगा, पशु – पक्षी इत्यादि जीवों को पुत्रों के साथ खेलते हुए देखा और मन में कहने लगा कि मेरे से तो यह पशु पक्षी भी सौभाग्यशाली हैं । इसी चिंता और सोच विचार में आधा दिन गुजर गया। आगे चला तो एक सरोवर मिल गया , उसमें मछलियाँ , मेंढक इत्यादि पुत्रों के साथ विलास कर रही थीं , विचार किया कि यह भी मेरे से अच्छे हैं ।
सरोवर के चारों तरफ मुनियों के आश्रम थे । राजा घोड़े से उतर कर मुनियों की शरण में गया और दंडवत प्रणाम कर उनसे पूछा, मुनिवर आप कौन हैं ? मुनि कहने लगे कि हे राजन्! आज संतान देने वाली पुत्रदा एकादशी है जो पुत्र प्राप्ति की इच्छा पूर्ण करती है। हम लोग विश्वदेव हैं और इस सरोवर में स्नान करने के लिए आए हैं। यह सुनकर राजा कहने लगा कि महाराज, मेरे भी कोई संतान नहीं है। क्या यह दिव्य फल मुझे व्रत करने से मिल जाएगा? यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो एक पुत्र का वरदान दीजिए।
मुनि बोले- हे राजन्! आज पुत्रदा एकादशी है। आप अवश्य ही इसका व्रत करें, भगवान की कृपा से अवश्य ही आपके घर में पुत्र होगा। राजा ने श्रद्धा से पुत्रदा एकादशी का व्रत कर रात्रि को जागरण किया और द्वादशी को उसका पारण किया। इसके पश्चात मुनियों को प्रणाम करके महल में वापस आ गया।
कुछ समय बीतने के बाद रानी ने गर्भ धारण किया और 9 महीने के पश्चात उनके एक पुत्र हुआ। वह राजकुमार अत्यंत शूरवीर, यशस्वी और प्रजापालक हुआ। राजा के दिल को धैर्य मिला और उसके पितृ भी प्रसन्न हो गये। जो मनुष्य इस माहात्म्य को पढ़ता या सुनता है, उसे अंत में स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
व्रत विधि:-
व्रत रहने वाले को दशमी के दिन रात में सात्विक भोजन करना चाहिए और ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।एकादशी के दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर नित्य कर्म करके भगवान को पुष्प, जल, धूप, दीप, अक्षत से पूजन करना चाहिए।
इस व्रत में तुलसी का भोग लगाया जाता है। निंदक, चोर, दुराचारी, नास्तिक इन सबसे बात नहीं करनी चाहिए। यदि भूल से ऐसी गलती हो जाए तो सूर्य देव की और मुख करके प्रार्थना करनी चाहिए।
फलाहार –
इस दिन नारायण जी की पूजा जाती है । इस दिन बछड़े वाली गाय ( गौ ) के दूध का सागार लिया जाता है ।
कीर्तन:-
रात्रि में भगवान विष्णु का नाम जप और कीर्तन करें। इस दिन भगवान की मूर्ति के समीप ही शयन करना चाहिए।
व्रत का समापन:-
द्वादशी के दिन प्रातः भगवान श्री हरि विष्णु की पूजा करके क्षमता अनुसार दान आदि करना चाहिए।
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